निकोलो
मैकियावेली इटली
का राजनयिक एवं राजनैतिक दार्शनिक, संगीतज्ञ,
कवि
एवं नाटककार था। पुनर्जागरण काल के इटली का वह एक प्रमुख
व्यक्तित्व था। वह फ्लोरेंस
रिपब्लिक का कर्मचारी था।
मैकियावेली की ख्याति उसकी रचना द प्रिंस
के
कारण है जो कि व्यावहारिक राजनीति का महान ग्रन्थ स्वीकार किया जाता है।
मैकियावेली के विचारों की
प्रासगिकता आज के दौर में भी उतनी ही हैं जितनी कि युरोप में पुनर्जागरण काल में
थी। भारत की राजनीति व्यवस्था संधीय (फेडरल) ढाँचे पर टिकी हैं यानि भारत राज्यों
का संघ हैं। सवा सौ करोड़ से भी ज्यादा की आबादी वाले देश में औसतन हर 50 किलोमीटर
पर भाषा की विविधता देखनें को मिल जाती हैं। आजादी के बाद से भारत 90 के दशक तक
अपनें औधोगिक उत्पादन व निर्यात बढ़ानें पर दे रहा था और इसी 90 के दशक के बाद देश
में एक नए बाजार व्यवस्था कि शुरुआत हुई जिसे वर्तमान में निजीकरण की संज्ञा दी
जाती हैं। देश आगामी साल की दुसरी तिमाही में 16वी लोकसभा के लिए अपनें मताधिकार
का प्रयोग करनें जा रहा हैं । आज देश में हर 10 में से 4 के करीब 30 वर्ष के युवा
हैं जो आज भी शैक्षिक योग्यता में अपनें आप को तराशनें में लगा हैं जबकि बुनियादी
जागरुकता यानि अधिकार, व्यवस्था या प्रशासनिक जानकारी के नाम पर योग्यता ना के
बराबर हैं। 2012 में देश की राजधानी में गाँधीवादी विचारधारा के अण्णा हजारे के
आंदोलन को भी स्पीड पकड़ने में 3 दिन का समय लगा जब दिल्ली के मीडिया हाउस को लगा
की अण्णा हजारें वो अंगार हैं जिस पर हाथ सेकनें के साथ साथ रोटी भी पकाई जा सकती
हैं और इस बात का अहसास मीडिया नें अण्णा के मुबई में हुए आंदोलन में करा दिया था
जिसका प्रसारण एक फ्लैस न्युज के रुप में ही प्रसारित हुई।
निकोलो मैकियावेली ने राजनीति को प्रयोगशाला के
रुप में माना जहाँ सरकार नए विचारों के साथ जनता में अपनी बात रखें और युवाओं को
राजनीति को मुख्य विचारधारा में शामिल होने पर बल दिया । Politics has no
relation to marals…. मैकियावेली का सार हैं । मैकियावेली
राजनेताओं को विरोधियों के प्रति कठोर रुख अपनानें को कहते थें जो दिग्विजय सिंह
की शैली का प्रमुख हिस्सा हैं। निस्देह इस बात में कोई शक नहीं की दिग्विजय सिंह
इतनें मझे हुए राजनेता हैं जो विरोधी का मुँह खुलवानें में माहिर हैं। भारतीय
चुनाव के समय में सभी राजनेतिक दल निकोलो मैकियावेली के सिर्फ विरोधियों पर कठोर
रुख अपनानें वाले बिंदु पर ध्यान देते हैं और राजनैतिक व्यवस्था को बदलनें की बजाय
समाजिक ध्रुविकरण पर जोर देते हैं और इसका दोष राजनैतिक दलों पर लगाने की बजाए
जनता पर ही लगाना उचित होगा क्योंकि वोटर हमेशा दिशाहिन या जातिय सोच के आधार पर
वोट डालनें जाता हैं बजाय कार्यात्मक समीक्षा के। भारतीय मीडिया हाउस जिसमें खासकर
इलेक्ट्रोनिक मीडिया शामिल हैं, वर्तमान में पुरी तरह से किसी ना किसी राजनैतिक
पार्टी से जुड़ चुके हैं जो लोकतंत्र के लिए भयावह स्थिति पैदा करती हैं । एंकर
अपनी निजी राय को जनता की राय बताकर दर्शको पर थोपनें का प्रयास करता हैं या
आक्रामक होकर विरोधी पार्टी के मेहमान को बोलनें का मौका ही नहीं देता हालाकि ये
सब वह फ्री में नहीं करता।
देश में प्रधानमंत्री
के पद को मजाक बनानें में मीडिया का योगदान किसी से छुपा नहीं हैं यानि किसी भी
व्यक्ति को प्रधानमंत्री के पद के लिए दावेदार के रुप में पेश कर दिया जाता हैं
इससें मुलायम, मायवती, शरद पवार सरीखें नेता डटें रहनें का हौसला रखनें लगते हैं।
बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार श्री नरेन्द्र मोदी को काग्रेस मीडिया की
उपज मानता हैं पर मोदी को नकार सकते है पर उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता हैं। निकोलो
मैकियावेली का जिक्र करना हर परिदृश्य में
जरुरी हैं क्योंकि मैकियावेली के सिद्धानतों के अनुरुप राजनेता
नहीं तो वोटर का चलना जरुरी हो गया हैं। हाँ एक बात जिस पर आज पूरे देश की निगाह
हैं कि अगर बीजेपी को बहुसत के करीब सीटें मिलती हैं तो क्या नरेन्द्र मोदी
प्रधानमंत्री बन पाएगें तो इसकी सभाँवना
मात्र 25 फीसदी बचती हैं वो भी इस सुरत में अगर बीजेपी 250+ सीटें लाती
हैं जो संधीय राज्यों वाले देश में वर्तमान में मुश्किल हैं। हालाँकि मिडिया का एक
तबका ये बात जानता हैं पर राजनीति में आम नागरिक हमेंशा आनें वाले हादसों से अनजान
ही बना रहता हैं ।इस बात का अदेशा शायद मोदी को भी हैं इसलिए वो
मुख्यमंत्री पद को छोड़ नही रहें। क्योंकि आडवाणी जी को अकेला मानना विश्लेषको की
सबसे बड़ी भूल होगी और इस बात पर बीजेपी की सेन्ट्रल लीडरशीप एक साथ हैं सिवाय
अरुण जेटली के। आगामी लोकसभा चुनाव में जहां सता पक्ष अपने विकास कार्यो का लेखा
जोखा लेकर चुनाव मैदान में कुदेगा वही विपक्ष मोदी और युपीए के घोटालों के नाम पर
जनता के बीच जाएगा जबकि उसके पास अपनी कोई स्पष्ट निति फिलहाल नहीं हैं और मीडिया
भी अभी स्पष्ट रुप से किसी एक के पक्ष में खुल कर सामने आने से बच रहा हैं क्योंकि
6 नेशनल व सैकड़ो क्षैत्रिय पार्टियों वालें देश में किसी भी राष्ट्रीय पार्टी के
लिए 272 का आँकड़ा पर करना मुश्किल हैं। जहाँ एक तरफ राहुल गाँधी राजनीति को जहर
बताते हैं तो अगले ही दिन युवाओं से आह्वान करते हैं कि राजनीति में आकर देश की
प्रगति का हिस्सा बनें। तो क्या माना जाए कि पोलिग के बाद जनता का काम खत्म हो
जाता है ऐसी परिस्थिति में मैकियावेली जनता के गुस्से को रिवॉलूशन
एगेस्ट मेंडेट की संज्ञा देते हैं जिसका परिणाम किसी भी विविधता वाले देश में
खतरनाक साबित होगा। अगर आज के राजनेता मैकियावेली के विचारों के अनुरुप चलें व
मीडिया अपना रवैया निष्पक्ष रहें तो आगामी लोकसभा में संसद में किसी भी विधेयक को
अध्यादेश के रुप में पेश करनें की गुजाँइश नही रहेगी और संसद का नजारा किसी
देवस्थान से कम नहीं होगा।
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