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विनायक सेन : सिस्टम की उपज…………..

"ईश्वर ने सब मनुष्यों को स्वतन्त्र पैदा किया हैं, लेकिन व्यतिगत स्वतंत्रता वही तक दी जा सकती हैं, जहाँ दुसरो की आजादी में दखल न पड़े यही रास्ट्रीय नियमो का मूल हैं” जयशंकर प्रसाद का ये कथन किसी भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था वाले देश के लिए सटीक बैठता हैं तो आखिर विनायक सेन ने ऐसा क्या किया की उन्हें रायपुर के जिला सत्र न्यायालय ने उम्रकैद की सजा दी? छत्तीेसगढ़ पुलिस ने पीयूसीएल नेता डॉ. बिनायक सेन को जन सुरक्षा कानून के अंतर्गत 14 मई 2007 को गिरफ्तार किया था। बिनायक सेन को देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने, लोगों को भड़काने, प्रतिबंधित माओवादी संगठन के लिए काम करने के आरोप में दोषी करार दिया गया था और 24 दिसंबर 2010 को अदालत ने उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। और सजा के बाद जैसी अपेक्षा थी कई बुद्धिजीवी सामने आये और नई दिल्ली के जंतर मंतर पर विचारों, कविताओं और गीत-संगीत के जरिये अपना विरोध दर्ज कराने के लिए अर्पणा सेन, शार्मिला टैगोर, गिरीश कर्नाड, गौतम घोष, अशोक वाजपेयी व रब्बी शेरगिल जैसी कई जानीमानी हस्तियों ने पत्र लिखकर विनायक सेन के लिए न्याय की मांग की। डॉ. बिनायक सेन के मुकदमे के पेरवी बी.जे.पी. के राज्यसभा सांसद और वरिष्ठ वकील रामजेठ मालानी कर रहे हैं जेठमलानी साहब का पता नही की कब वो वकील की हेसियत से काम करते हैं…..और कब राजनेता के रूप में .........?

58 वर्षीय डा.विनायक सेन शिशु रोग विशेषज्ञ है, जिसका जन स्वास्थ्य अधिकारी के रूप में राज्य के आदिवासियों को सेवाएं प्रदान करने का 25 सालों का रिकार्ड है। सेन ने वेल्यूर के सीएमसी (क्रिश्चन मेडिकल कॉलेज) से स्नातक की डिग्री हासिल की थी। 2004 में उसे पॉल हैरिशन नामक अवार्ड से नवाजा गया था। लंबे समय तक बिनायक ने चिकित्सा के क्षेत्र में सेवाएं देने के साथ-साथ दूसरे कामों में भी समय दिया। राज्य मितानिन कार्यक्रम के तहत उसे राज्य सरकार के साथ काम करने का मौका मिला। पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के समय में वो स्वास्थ्य विभाग के अतंर्गत राज्य सलाहकार कमेटी के सदस्य के पद पर नियुक्त रहे। धीरे-धीरे सेन ने नागरिक आजादी और मानव अधिकार के कार्यो में रुचि बढ़ाई और वह राज्य के ऐसे सबसे पहले व्यक्तियों में गिने जाने लगे, जिन्होंने धान का कटोरा कहलाने वाले छत्तीसगढ़ प्रदेश में भूखमरी और कुपोषण के खिलाफ एक खोजी रिपोर्ट तैयार की। उसी समय उन्हें पीयूसीएल (पीयूपल्स यूनियन फॉर सिविल लीबरटिस) का राज्य अध्यक्ष और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष चुना गया। उन्होंने सलवा जुडूम के खिलाफ लोगों का सबसे पहले ध्यान आकर्षित किया था। इसके बाद से ही उन पर नक्सलियों को समर्थन देने और उनके उद्देश्य के तहत काम करने का आरोप लगा। बाद में पुलिस ने इसकी गंभीरता से जांच की, उनकी गिरफ्तारी हुई और फिर पिछले दो सालों से इस मामले में मुकदमा चलता रहा।

चूंकि वे राष्ट्रीय स्तर पर संगठन के उपाध्यक्ष रहे, इसलिए उनके खिलाफ देशद्रोह के तहत युद्ध की योजना बनाने के लिए भी धारा लगाई गई। बाद में इसके ठोस सबूत नहीं मिल सके। जहाँ एक और शंकर गुहा की आवाज मिल मजदूरो के लिए उठी पर हमेशा के लिए दबा की गई , वही विनायक सेन की आवाज सलाखों के पीछे धकेल दी गई , पर विनायक सेन शायद इस बात को जानते थे की वो जो करने जा रहे हैं उसका परिणाम क्या होगा ...........!

देश में आर्थिक उदारीकरण का दौर नब्बे के दशक में जब से शुरू हुआ तब से भारत दो पाटो में पिसना शुरू हो गया था जिसका सबसे ज्यादा खामियाजा मध्यम वर्ग को उठाना पड़ा
अगर आज महाराष्ट्र के विधर्भ में सबसे ज्यादा किसान आत्महत्या कर रहे हैं तो उसी क्षेत्र में सबसे ज्यादा मर्सडीज़ या बी.एम.डब्लू. कारें सड़क पर उतरती हैं , औरंगाबाद में 113 मर्सडीज़, 101 बी.एम.डब्लू. और वही महाराष्ट्र के पश्चिमी समर्द्ध इलाके जेसे कोहलापुर, सांगली में डॉक्टर ,उद्योगपति और किसान तक़रीबन 180 इम्पोर्टेड कारों की बुकिंग करवातें हैं यानि जो सामाजिक विसंगति पैदा हुई हैं वही आज की परिस्थिति के लिए ज़िम्मेदार हैं और जो इस विसंगति को दूर करने के लिए आवाज उठता हैं वो सरकार विरोधी या विकास में बाधक माना जाता हैं |
विनायक सेन अगर दिल्ली के पॉश इलाके या किसी न्यूज़ चेनल के स्टूडियो में बैठ कर नक्सली इलाको में सुधार की बात करते या फिर नक्सलियों की मांगो को जायज ठहराते तो उनको कम से कम सजा तो नही मिलती पर उन्होंने देवता रूपी चिकित्सक के पेशे को किसी मल्टीस्टार हॉस्पिटल के बजाय छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाको में इस्तेमाल करने का फैसला किया और जब से उन्हें उम्रकेद की सजा हुई हैं तब से कई बुद्धिजीवी जिसमे लेखक , कलाकार , छात्र संघटन शामिल हैं , उनकी रिहाई की मांग उठा रहे हैं ,……….ये आवाज शिबू सोरेन, कलमाड़ी या पूर्व दूरसंचार मंत्री राजा सरीखे व्यक्तियों के मामले में नही उठी , जो भ्रष्टाचार के मामलो में आरोपी हैं , और जो रकम इन लोगो ने हड़पी हैं वो देश की आवाम की हैं, पर वो उन लोगो तक नही पहुँच पाई जिन पर उनका हक था ........और अपने इसी हिस्से को हासिल करने ले लिए कुछ लोग आन्दोलन करते हैं और कुछ सीधे बन्दुक का सहारा लेतें हैं पर इसे विडम्बना कहे या दुर्भाग्य जो व्यवस्था के शिकार हैं वो दोषी माने जातें हैं और जिनके कारण ये सब हुआ हैं वो शासन में भागीदारी रखते हैं

डॉ सेन पर कई विचारक लिखते हैं की, आखिर सेन ने अपने काम के लिए भारत में छत्तीसगढ़ ही क्यों चुना .....? उनके अनुसार विचारो के आवेश और मृग मरीचिका में आकर विनायक सेन, कानू सान्याल , चारू मजुमदार , कोबाद गाँधी जैसे लोग इस तरह की विचारधारा को अपना लेते हैं ..........
पर हाथ पर हाथ धर कर या सिर्फ सुझाव देकर किसी समस्या से निजात नहीं मिलती |
04 फरवरी 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने एक फैसले में कहा हैं की कोई भी प्रतिबंधित संघठन की सदस्यता से कोई भी व्यक्ति अपराधी नही बन सकता ..........जब तक कोई व्यक्ति हिंसा में शामिल न हो या हिंसा के लिए लोगो को न उकसाए , उसे अपराधी नही माना जायेगा ......." अदालत ने यह आदेश प्रतिबंधित उग्रवादी संघठन उल्फा के कथित कार्यकर्ता अरूप भुईया के मध्य नज़र दिया | दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 124 के तहत अगर कोई व्यक्ति या संगठन जो शासकीय व्यवस्था को कोसते हों या सुधारने की कोशिश करते हों, तो उसे राज्य के खिलाफ युद्ध नहीं माना जाना चाहिए।
क़ानून हमें अभिव्यक्ति और अपने अधिकारों के प्रति सजग रहने को कहता हैं लेकिन कोई भी सरकार न तो अधिकारों को जनता को दिला पाई हैं बल्कि जनता को उनके कर्तव्यों का बोध कराने लगती हैं |
हाल ही में महाराष्ट्र का वाकया सबके सामने हैं ..........पदमश्री पुरुष्कार प्राप्त विश्वविख्यात आदिवासी चित्रकार जिव्या मसे को 34 साल के संघर्ष के बाद ज़मीन मिली, ये ज़मीन उन्हें 1976 में राष्ट्रपति फखरूदीन अली अहमद द्वारा दी गई थी पर लम्बे संघर्ष के बाद आखिर राहुल गाँधी के महाराष्ट्र दौरे पर खुद राहुल गाँधी ने तीन एकड़ भूमि के कागजात उन्हें सोपे पर जिन्दगी 34 साल उन्होंने इसे भंवर में उलझकर बिता दिए ........ये सब घटनाये समाज के सामने चुनोतियाँ हैं क्योकि इन्ही की वजह से एक इन्सान सिस्टम के खिलाफ खड़ा होता हैं |
बात सिर्फ एक विनायक सेन को सजा को लेकर नहीं हैं , बल्कि इस बात को लेकर हैं की सरकार अपने नागरिको को लेकर कितनी सजीदा हैं, क्या नागरिको को ही राष्ट्रधर्म निभाना होगा और प्रशासन अपना सेवा धर्म भूलता जा रहा हैं, सर्वोच्च न्यायलय को देश की सर्वोच्च संसद को आज उसकी ज़िम्मेदारी याद दिलानी पड़ती हैं .............परिवर्तन की ये आहट किसी भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था वाले देश के लिए घातक हैं खासकर भारत जैसे देश के लिए जिसके बड़ी आबादी युवा हैं और वह एक बेहतर भविष्य की आस में हैं हाल ही में अरब देशो में हुआ घटना क्रम इसका सबसे ताज़ा उदहारण हैं |टयूनीशिया, यमन, मिस्त्र , सूडान में जो आक्रोश वहां की जनता ने दिखाया वो एक सबक हैं , जहाँ शासन के विरुद्ध आक्रोश दिखने वाले ज़्यादातर युवा हैं ,सरकार को युवाओं के बेहतर भविष्य का ज़िम्मा बखूबी निभाना चाहिए........,जिससे हमारे देश की राष्ट्रीय अस्मिता पर कोई आंच न आये




Comments

Anonymous said…
Hello Mr Rajeev,
nice and clear view about our sistem but one thing is that we can change. this is our moral duty that to whissel blow against coureption. thanks

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