भारतीय सविधान के अनुच्छेद 51A में नागरिको को उनके 11 कर्तव्यों का बोध कराया गया हैं जबकि अनुच्छेद 12 से 35 हमें हमारे अधिकारों के बारे में निर्देशित करता है ।हमारे कर्तव्यों की बुनियाद इतनी शसक्त हैं की, उनका अनुपालन करना हमारे लिए गर्व की बात हैं …अब बात आती हैं की ,क्या …हम अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने की बजाय अपने अधिकारों के प्रति ज्यादा सजग हैं ? किसी भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में कोई देश तब तक मानवीय मूल्यों में सर्वोपरि नही बन सकता जब तक वहां के नागरिक अपने कर्तव्यों का ठीक तरह से पालन नही करता ....| मसलन सड़क पर चलना हमारा अधिकार हैं लेकिन उसे रास्ट्रीय सम्पति होने के नाते उस पर गंदगी न फेलाना, ये हमारा कर्त्तव्य हैं ... पर मोटे तोर पर आंकलन करे तो पता चलता हैं की ज़्यादातर लोगों को ऐसा करने में शायद शर्म आती हैं, उदहारण के तौर पर हमारे देश की परिवहन व्यवस्था में हमारे कर्तव्यों की कमी साफ तोर पर देखी जा सकती हैं
राजधानी दिल्ली में रास्ट्र मंडल खेल में जितने वोलेंटर हैं उन्हें बाकायदा इस बात का प्रशिक्षण दिया गया हैं की हमें किस तरह से मेहमानों से बात करनी हैं ....क्या आज हमें इस बात को भी समझने की ज़रूरत हैं , या फिर हमने उस भावना को भुला दिया हैं जिस भावना में हमारे कर्तव्यों का ज़िक्र हैं ? अगर हाँ तो इसका कौन ज़िम्मेदार हैं ............? किसी व्यवस्था का दोष दूसरों पर मढ़ देना उतना ही सरल हैं जितना की दूध में से मख्खी बाहर निकाल फेकना | यानि हर बात का दोष सरकार पर मढ़ना हमारे समाज को दोषपूर्ण रवैया हैं | चूँकि सरकार समाज का ही अंग हैं तो सरकार का आकार-प्रकार भी उसी के अनुरूप होगा |
अब बात करते हैं अधिकारों की तो छोटा सा उदहारण लेते हैं सविधान के अनुच्छेद 21 क की जिसमे शिक्षा का अधिकार इंगित हैं यानि "राज्य 6 से 14 वर्ष तक के बच्चो को निशुल्क व अनिवार्य शिक्षा देने की व्यवस्था करेगा " पर शायद सरकार ने उसे कर्त्तव्य समझकर उसे लागु करने में लगभग 60 वर्ष का लम्बा समय ले लिया ....? इसमें पूरा दोष सरकार पर मढना गलत है…., चुकी वही दूसरी ओर अनुच्छेद 51A (जो की भारतीय नागरिक का कर्त्तव्य हैं) में बताया गया हैं की "यदि माता पिता सरंक्षक है ,6 से 14 वर्ष तक की आयु वाले अपने, यथास्थिति ,बालक या प्रतिपालय के लिए शिक्षा के अवसर प्रदान करे " यानि सरकार अगर नागरिको को अधिकार देने में सफल नहीं होती हैं....तो दूसरी और हम भी अपने कर्तव्यों के निर्वहन में नाकामयाब हैं |
उपभोगता मंत्रालय भारत सरकार के नये विज्ञापन जागो ग्राहक जागो की टेग लाइन "समझदार ग्राहक की पहचान .........अधिकार से पहले कर्तव्यों का हो ज्ञान " भी इसकी पुष्टि करता हैं की जब तक हम अपने कर्तव्यों को नही निभायेगे तब तक अधिकारों से वंचित होना पड़ेगा |
जब देश सिस्टम के अनुरूप चलता है तो सब ठीक ठाक रहता हैं , लेकिन जब सिस्टम को चलाने की हिमाकत की जाती हैं तो सब गड़बड़ हो जाती हैं यानि सरल भाषा में कहें तो भारत में सिस्टम को चलाया जाता हैं बजाय जो सिस्टम बना हैं उसके अनुरूप चलने के ...........और उस सिस्टम को चलाने का स्टेरिंग चुनिन्दा लोगो के हाथ में लगा हैं यही चुक हर नागरिक के मन में "अपना क्या जाता हैं .........." की भावना पैदा करती हैं |
हमारे 11 कर्तव्य जो सविधान में सुझाये गए हैं और कुछ और जो हमें देश की संस्कृति ने दिए हैं उनका पालन करने की आज सख्त ज़रूरत हैं इसके द्वारा मौजूदा कार्यशेली में परिवर्तन तो होगा ही साथ में सिस्टम के अनुरूप चलने की प्रवर्ती भी पैदा होगी | आज न तो किसी क्रांति की ज़रूरत हैं ना ही आन्दोलन की .......अगर ज़रूरत हैं तो एक संकल्प की .....हमें किसी और से आज़ाद नही होना बस उन विचारो की बेडी को तोडना हैं जो हमारे कदमो को सिस्टम के रास्ते से हटाकर छोटी पगडण्डी पर चलने को कहते हैं | और यह सब संकल्प के माध्यम से संभव हैं |
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