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धरती किसी की माँ नहीं हैं

पश्चिम के देशों ने विकास की रफ्तार में प्राकृतिक संसाधनो को जिस तरह से दोहन करना शुरु किया उस वक्त दुनिया की आबादी महज 1 अरब थी और ये देश अपने आप को विकसित देशों की कतार मे स्थापित कर पाए। चीन आज दुनिया में जिस तरह से इको सिस्टम को बिगाड़ने पर तूला हैं तो उसकी आबादी ही 1.5 अरब के करीब हैं और पूरी दुनियां की आबादी 6 अरब से भी ज्यादा हैं। अमेरिका क्षेत्र के हिसाब से कई देशों से छोटा है और वह दुनिया की सबसे बडीं अर्थव्यवस्था हैं और आज के समय में अमेरिया अगर छिकता हैं तो भी पूरी दुनियां के बाजारों में हलचल मच जाती हैं। पर्यावरण पर अंतराष्ट्रीय सम्मेलन की शुरुआत रियो सम्मेलन 1992 से शुरु हुई और अब तक 23 वर्षो में विकसित बनाम विकासशील देशों के बीच खिची लकीर  मिटने का नाम नहीं ले रहीं। जाहिर सी बात हैं ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन को कम करनें के लिए सभी देशों को अपनी विकास की रफतार को कुर्बानी देनी होगी जिसके लिए कोई भी तैयार नहीं यानि मैं अकेला क्यों करुं। ये ठीक वैसे ही हैं जैसे दिल्ली में बढ़ते प्रदुषण के मद्यनजर सरकार कई अहम फैसले लेती हैं तो शुरु होने से पहले ही विरोध शुरु हो जाता हैं यानि देश में भी विकसित बनाम विकासशील समाज की अवधारणा हैं तो इस नजरीए से कोई व्यक्ति या देश किसी को धरती के बढ़ते तापमान के प्रति दोषी नहीं ठहरा सकता । ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में चीन 24 फीसदी के साथ प्रथम स्थान पर हें उसके बाद अमेरिका (12 फीसदी), यूरोपीय संघ(9 फीसदी), जबकि भारत व ब्राजील दोनो 6 फीसदी योगदान करते हैं उसके बाद रुस, जापान, कनाडा, कांगो रिपब्लिक व इंडोनेशिया का नंबर आता हैं। यानि अंतराष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण प्रदुषण के संदर्भ में भारत की स्थिति ठीक वैसी हैं जैसी की हमारे देश में किसी गाँव या मध्यम आबादी वाले शहर की हो जो देश की किसी महानगर जैसे दिल्ली,मुंबई से कम प्रदूषण फैलाते हैं । पर इन महानगरों में बैठे कॉरपोरेट धरानें, लॉबिस्ट सभी किसानों की फसलों को प्रदुषण से जोड़कर देखते हैं और खुद जिम्मेदारी लेने से ठीक वैसे ही कतराते हैं जैसे अंतराष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन में विकसित देश कतराते हैं।
दुनिया के पर्यावरण में हो रहे अप्रत्याशित बदलाव का असर दिखने लग गया हैं। आधुनिक विकास का यह स्वरुप औधोगिक विकास का बढ़ता प्रारुप हैं और सबसे बड़ी चुनौती हैं कि पृथ्वी के तापमान में कैसे कमी की जाए अगर मात्र 2 डिग्री तापमान बढ़ गया तो कई प्रजातिया विलुप्त हो जाएगी और एक बड़ी आबादी इससें जुडे कुप्रभावों से प्रभावित होगी खासकर भुमध्यरेखा के आसपास वाले देश की बड़ी आबादी शामिल होगी। विषशज्ञों का कहना है कि अगर पृथ्वी का तापमान 4 डिग्री बढ़ जाता हैं तो समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी का खतरा होगा जिससें अकेले भारत में तकरीबन 6  करोड़ लोग खतरें में होगे। ग्रीन हाउस गैसों के अलावा समुद्री जल भी प्रदुषित होता जा रहा हैं जिससें पृथ्वी का इको सिस्टम खतरें मे हैं भूजल के अधांधुध दोहन के कारण धरती का जल भी लगभग प्रदुषित हो गया हैं। इसी इको सिस्टम के बिगड़नें से देश के अलावा युरोप, अफ्रीका, अमेरिका भी हर वर्ष सुखें की मार झेल रहा हैं। अगर भारत वर्ष की बात की जाए तो देश नें विगत कुछ वर्षों में कई प्राकृतिक आपदाए देखी हैं जैसे उतराखंड, कश्मीर की बाढ। इसके अलावा महाराष्ट्र, तिलंगाना में पड़नें वाला सुखा ......... ये सब इंसानी कारनामों का ही परिणाम हैं।
भारत में अभी पर्यावरण के प्रति गंभीरता नहीं देखी गई अगर देश के आदिवासी या कबाइली समुदायों को छोड़ दे तो कोई भी अपने आप को धरती पुत्र नहीं कह सकता पर आदिवासी व कबाइली समुदाय तो कॉरपोरेट के बनाए कोल्हू में इस तरह से पीसे जा रहें है जिसकी आवाज दब सी गई हैं। अभी राजधानी दिल्ली का उदाहरण लेते हैं जिसमें सरकार नें कोर्ट की फटकार सुननें के बाद राजधानी की हवा को जीनें लायक बनाने के लिए फैसले लिए जिसमें सड़को पर ऑड-ईवन गाड़ी चलाने, बदरपुर पॉवर हाउस बंद करनें, सड़को के किनारे पड़ी कच्ची जगह को हरा भरा करनें, कुड़ा जलाने पर रोक, सड़कों की सफाई मशीनो द्वारा करने आदि आदि। पर देश के इलेक्ट्रोनिक मीडिया का हाल देखिए सिर्फ ऑड-ईवन गाड़ी चलाने के फार्मूले को आधार बना कर जनता में रोष पैदा कर दिया और जनता भी तरह तरह के सुझाव दे रहीं हैं जैसे ऑफिस कैसे जाए? अगर कोई बीमार है तो हस्पताल कैसे ले जाए ? यानि जिनके घर गाड़ी नहीं वो ना ऑफिस जा सकता ना उनके घर का व्यक्ति जो बीमार हो वो इलाज के लिए जा सकता ... कैसे कैसे बेतुके आधार बता कर ऑड-ईवन गाड़ी चलाने के फार्मूले को बंद करवाने में लगे हैं। मान लो अगर ऑड-ईवन फार्मूला लागू हो जाता हैं तो क्या होगा... ज्यादा से ज्यादा जनता को 6 महीनें परेशानी झेलनी पड़ेगी उसके बाद धीरे धीरे स्थितिया बेहतर होगी तो क्या हम जो धरती को अपनी माँ मानते हैं इतना भी नहीं कर सकते अपनी माँ के खातिर। पर जब पंजाब , हरियाणा, युपी का किसान खेत में कचरा जलाते हैं तो दिल्ली में बैठे लोग सांस लेने में दिक्कत महसुस करते हैं और राजधानी का मीडिया भी इसे पर्यावरण के लिए खतरा बताता हैं जबकि यही मीडिया दिल्ली में कार वाले मसले पर जनता की परेशानियो को सामने रखती है । क्या इस मामले में सिर्फ सरकार ही जिम्मेदार हैं जो हवा को भी साँस लेने लायक बनाए और जनता को भी परेशानी ना हो ? इस हिसाब से गाँव मे रहने वाला व देश का किसान तो प्रदूषण के लिए बिलकुल भी जिम्मेदार नहीं हैं। अगर तुलना करे तो गाँव में रहने वाला व्यक्ति किसी महानगर में रहने वाले की तुलना में 30 फिसदी कम हवा, पानी को गंदा करता हैं । वह शौच से लेकर स्नान तक हर कार्य में किसी महानगरीय व्यक्ति के मुकाबले बहुत कम पानी का इस्तेमाल करता हैं । अगर कॉरपोरेट के बहकावे में आकर कुछ लोग ये तर्क दे की किसान फसलों की सिचांई में ज्यादा पानी इस्तेमाल करता हैं तो ये धारणा भी बिलकुल गलत हैं क्योकि इसके बराबर मात्रा में तो पानी उच्च तबके के लोग अपनी गाड़ी धोनें, स्वीमिंग पुल आदि कार्यों में गवां देते हैं यानि देश का किसान तो बिलकुल भी जिम्मेदार नहीं हैं। देश की बड़ी आबादी धरती की पूजा करती हैं पर जब धरती का कर्ज चुकाने की बात आती हैं तो सब ये कहते हैं कि भगत सिहं पड़ोसी के घर पैदा हों। क्या हम अपनी जीवन शैली में बदलाव नहीं कर सकते हैं । ये ठीक वैसा ही सुझाव हैं जैसा कि पर्यावरण पर अंतराष्ट्रीय सम्मेलन में विकसित देश व विकासशील देश एक दूसरे को देते हैं । यानि जीवन शैली में बदलाव का मतलब हैं आय में कमी व आय की कमी इतनी भी कम नहीं होगी की इंसान जी नहीं पाएगा... हाँ हमारी भोगविलासिता कम हो जाएगी । इसी भोगविलासिता के कारण ही तो धरती का तापमान आज बढ़ता जा रहा हैं और इसका दोष विकसित देश विकासशील देशों पर व देश के महानगरीय लोग गाँव के ढांचे को दोषी मानते हैं। पर सही मायनों में गाँव व छोटें शहरों के लोगों का योगदान बहुत ही कम हैं। अगर आज देश के कुछ गाँवो का स्वरुप बदलता जा रहा हैं तो उसका दोष बढ़ते औधोगिकरण को जाता हैं जिसमें गुजरात, महाराष्ट्र, बंगाल, हरियाणा, हिमाचल, उतराखंड , झारखंड, औडिशा व कुछ और भी राज्य आते हैं जहाँ एसईज़ेड के नाम पर ऊपजाऊ भूमि कंक्रीट में बदलती जा रहीं हैं।
हमें अपनी जीवन शैली में बदलाव करने होगे जिसकी शुरुआत महानगरों से होनी चाहिए जैसे जो व्यक्ति हमेंशा रोज के भोजन में माँसाहार लेता हैं वह उसको थोड़ा कम कर दे क्योकि बीफ या मीट को पकाने में सबसे ज्यादा ईंधन लगता हैं जो कही ना कही पर्यावरण में CO2 ज्यादा मात्रा में भेजता हैं। रोजमरा के कार्यों में पानी के इस्तेमाल पर पैसे की तरह कंजूसी बरते, प्लास्टिक से बनें उत्पादों का इस्तेमाल कम करें, घरों में इस्तेमाल टायलेट के रुप में कम पानी इस्तेमाल होने वाली टायलेट सेट लगवाये, अपनी कार या वाहन को पानी से धोने में सावधानी बरते कि पानी कम खर्च हो, इलेक्टोनिक गैजेट्स को मानक सीमा के अनुरुप ही चलाए आदि । ये उपाय देखने में छोटे लगते हैं पर इनका प्रभाव गहरा पड़ेगा। रही बात किसान या गाँव से  जुडी तो वहा तो सब चीजें रिसाइकल होती हैं पशु के गोबर से लेकर घर के खाने तक और रही बात फसलों में पड़ने वाले रसायन के इस्तेमाल की तो ये भी किसान के हाथ मे नहीं हैं क्योकि फसलों का मूल्य सरकार निर्धारित करती हैं अगर मूल्य सही होगा तो किसान पैदावार बढ़ानें की बजाए गुणवता पर जोर देगा। और जब राजधानी में बैठे लोगो को धान के कचरें से समस्या होगी तो वो भी किसान नहीं जलाएगा क्योकिं उसका इस्तेमाल भी खेत में हो जाएगा पर पहल सबसे पहले देश में उपरी तबके से हो जो धरती को मौखिक रुप में माँ मानता हैं जबकि वह असल में दतक पुत्र हैं जबकि असली धरतीपुत्र किसान तो अपने हिस्से कि सेवा कर ही रहा हैं।


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